श्रीश्री निम्बार्क भगवान हमारे सम्प्रदाय के चतुर्थ आचार्य हुए। कलियुग के प्रारम्भ में, लगभग पाँच हजार वर्ष पहले, जब भगवान श्रीकृष्ण अपनी अवतार लीला समाप्त करके वैकुण्ठ को पधारे तो यह पृथ्वी घोर नास्तिकता, अधर्म इत्यादि में डूब गयी। मृत्युलोक के जीवों की दुर्दशा देखकर करुणामय ऋषि नारद के अनरोध पर ब्रह्मा और अन्य देवगण गोलोक में भगवान के निकट गए और पृथ्वीवासियों के प्रति कृपा वर्षा करने के लिए उनसे प्रार्थना की। भगवान ने अपने नित्य और अभिन्न पार्षद के अवतार ग्रहण करने की व्यस्था कर दी।
सुदर्शनो द्वापरान्ते कृष्णाज्ञप्तो जनिष्यति।
निम्बादित्य इति ख्यातो धर्मग्लानिं हरिष्यति।। (भविष्य पु. प्रतिसर्ग पर्व,४।७।६७)
भगवान श्रीकृष्ण के आदेश से द्वापर के अन्तकाल में सुदर्शन चक्र जन्म ग्रहण करेंगे। वे निम्बादित्य के नाम से प्रसिद्ध होंगे और धर्म की ग्लानि को हरण करेंगे। भगवान ने सुदर्शन को अनेक प्रकार से आदेश किए और कहा, “तुम धर्म की स्थापना के लिए जगत के कल्याण का कार्य करोगे और हंस या सन् सम्प्रदाय नाम का जो प्राचीन सम्प्रदाय है, वह तुम्हारे नाम से प्रसिद्ध होगा।”
भगवान के विधान के अनुसार सुदर्शन ने तैलंग देश के वैदुर्यपत्तन गाँव में एक ऋषि दम्पत्ति के घर जन्म लिया। उनके पिता का नाम था अरुण और माता का नाम था जयन्ती। उन्होंने बहुत समय तक पुत्र की प्राप्ति के लिए श्रीभगवान की आराधना की थी। निःसन्तान होन के कारण दोनों के मन में पुत्र प्राप्ति की तीव्र इच्छा थी। एक बार अरुण ऋषि अपने ससुराल गए हुए थे तब एक रात्रि उन्होंने देखा कि एक दिव्य ज्योति उनके शयनकक्ष में प्रकाशित हुई और वह जयन्ती के गर्भ में प्रवेश कर गयी। एक दैववाणी हुई जिसने उन दोनों को सम्बोधित करते हुए कहा, “श्री भगवान के पार्षद सुदर्शन चक्र तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लेंगे।” उस समय माघ का महीना था और और इस घटना के बाद अरुण और जयन्ती अपने आश्रम लौट आए। नौ महीने बीतने पर दसवें महीने में जयन्ती देवी ने एक सुलक्षण सम्पन्न पुत्र को जन्म दिया। वह दिन था कार्तिक मास की रास पूर्णिमा का दिन। भविष्य पुराण मे उल्लेख इस प्रकार है –
कार्तिक महीने की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को वृषभ राशि में, चन्द्र की कृत्तिका नक्षत्र में पांच ग्रह उच्च स्थान होने पर, परम रमणीय सूर्यास्त का समय और रात्रि का आगमन काल होने पर, मेष लग्न में जयरूपिणी जयन्ती के गर्भ से जगदीश्वर ने जन्म ग्रहण किया। (भवि.पु. प्रतिसर्ग पर्व, ४।७।७७-७९)
ऋषि दम्पत्ति ने अपने पुत्र का नाम रखा – नियमानन्द। भगवान श्री कृष्ण के आदेश से नारद भगवान ने ऋषि दम्पत्ति को उनके पुत्र के जन्म से पहले दर्शन दिया और उन्हें बताया कि उनके घर में श्रीभगवान के सुदर्शन चक्र ही अवतरित होने वाले हैं। उस बालक को वे स्वयं लौकिक रूप से दीक्षा प्रदान करेंगे, नारद ने उन्हें यह भी बताया। नियमानन्द के जन्म के कुछ समय बाद उनका उपनयन, चूड़ाकरण, इत्यादि संस्कार सम्पन्न होने पर अरुण और जयन्ती नारद भगवान के आदेशानुसार पुत्र को लेकर तैलंग देश से ब्रज धाम को चले गए। ब्रजधाम में गोवर्धन गिरि के पास निम्बगांव में नियमानन्द का शास्त्राध्ययन आरम्भ हुआ। नियमानन्द श्रुतिधर थे, अर्थात् जो एक बार कान से सुनते थे वह उन्हें कण्ठस्थ हो जाता था। निम्बगांव (आजकल इसे नीमगांव कहा जाता है) में कुछ समय बाद नारदजी अपने वचनानुसार वहाँ उपस्थित होकर नियमानन्द को दीक्षा देने के लिए पहुँचे। उस समय नियमानन्द ने नारदजी के पास भगवान श्रीकृष्ण को साक्षात दर्शन किया। इस प्रकार भगवान का दर्शन पाकर नियमानन्द किछ क्षणों के लिए बाह्य-ज्ञान रहित हो गए। ज्ञान लौटने पर उन्होंने भगवान और नारदजी दोनों को प्रणाम किया। नारदजी ने भगवान के सामने ही नियमानन्द को अपनी गोद में बैठाकर दीक्षा और नैष्ठिक ब्रह्मचर्य प्रदान किया और उन्हें सम्पूर्ण ब्रह्मविद्या का उपदेश भी दिया।
इस विद्या को धारण करने के लिए और इसकी साक्षात अनुभूति के लिए नारद जी ने नियमानन्द को कठोर तपस्या करने का आदेश दिया और वहाँ से अन्तर्हित हो गए। गुरु के आदेशानुसार नियमानन्द कठोर तपस्या में लीन हो गए। निद्रा-विश्राम त्यागकर, वे केवल नीम के फल का आहार करते थे और दिन-रात तपस्या करते थे। बहुत कठोर साधना के बाद वे सर्वसिद्धि को प्राप्त होकर आप्तकाम और आत्माराम हो गए।
इसके बाद नियमानन्द जगत कल्याण के लिए तीर्थ आदि भ्रमण, धर्म प्रचार, शिष्यकरण इत्यादि करने लगे। उनकी उज्ज्वल कान्ति और तपोदीप्त मुख को दर्शन करके बहुत जीव उनकी ओर आकृष्ट होते थे और उनसे दीक्षा प्राप्त कर उनकी शरण ग्रहण करते थे। परन्तु कुछ ऐसे भी थे जो उनकी इस प्रसिद्धि और विभूति से ईर्ष्या करते थे, वे किसी न किसी उपाय से नियमानन्द के विरुद्ध काम करके उनको हानि पहुँचाने का प्रयास करते थे। नियमानन्द लौकिक निन्दा और प्रशंसा के प्रति उदासीन ही रहते थे परन्तु कभी-कभी लोक कल्याण के लिए वे अपनी विभूति का प्रकाश भी करते थे।
तीर्थ भ्रमण करते समय वे एक बार पद्मनाभपुरी पहुँचे तो वहाँ के आदिवासियों ने उनका बहुत आदर-सम्मान और सत्कार किया और बहुतों ने उनसे दीक्षा भी ग्रहण की। यह सब देखकर एक दल उनका विरुद्धाचरण करने लगा। यह सब देखकर नियमानन्द ने शहर से दूर एक तपोवन में अपना आसन लगाया और वहीं बैठकर भगवान का ध्यान करने लगे। वे एक गूलर के पेड़ के नीचे भगवत् ध्य़ान में तल्लीन थे, उस समय उनके विरोधी उनकी हत्या करने की इच्छा से वहाँ आए। नियमानन्द ने केवल एकबार उनकी ओर देखा और ठिक उसी समय पेड़ से एक गूलर का फल नीचे गिरा और उनके चरणों को स्पर्श किया। उनके चरणों का स्पर्श पाते ही वह फल दो भागों में खण्डित हो गया और उसमें से एक दिव्य पुरुष प्रकाशित हए। संस्कृत में गूल को उदुम्बर कहा जाता है। इसलिए उदुम्बर के फल से उत्पन्न होने के कारण उन पुरुष का नाम हुआ “औदुम्बराचार्य।” नियमानन्द अपनी तपस्या में तल्लीन ही रहे पर यह अलौकिक काण्ड देखकर भी दुष्कृतियों की मति नहीं बदली। ध्यान निमग्न नियमानन्द के चारों ओर उन्होंने लकड़ी का स्तूप सजा कर उन्हें ढक दिया और फिर उसमें आग लगा दी। अग्नि की शिखाओं ने शीघ्र ही नियमानन्द को चारों ओर से ढक लिया और दुष्कर्मियों को लगा कि अब तो नियमानन्द की मृत्यु निश्चित ही है। अग्नि की लपटें जब शान्त हो गयीं तब उस भस्म के स्तूप में नियमानन्द को जीवित देखकर वे भयभीत हो गए और इधर-उधर भागने लगे। अब भगवान ने अपनी लीला प्रकट की और नियमानन्द के विरोधियों के सामने वे नृसिंह अवतार धरण करके उनको भक्षण करने के लिए उद्यत हो गए। तब वे प्राणों की भिक्षा माँगते हुए नियमानन्दजी के चरणों पर गिर पड़े और उनसे क्षमा याचना करने लगे। भगवान ने तब अपना नृसिंह रूप समेट लिया और वहाँ से अन्तर्हित हो गए। बाद में श्रीनियमानन्द जी का रूपान्तर एक असीम शक्तिशाली आचार्य सम्प्रदाय-प्रवर्तक के रूप में हुआ। श्रीनियमानन्दजी से वे श्रीश्री निम्बार्क भगवान के नाम से कैसे प्रसिद्ध हुए, यह प्रसंग उल्लेख योग्य है।
श्री नियमानन्द जी बृज भूमि के नीमगाँव में रहते थे एवं उनकी योग शक्ति त्रिलोक में प्रसिद्ध थी। एक बार उनकी योगशक्ति के परीक्षा करने के लिए एक यति उनके आश्रम पर सूर्यास्त के कुछ समय पहले पधारे। कहीं कहीं यति को ब्राह्मण कहा गया है परन्तु भविष्य पुराण में उल्लेख आता है कि स्वयं परम पिता ब्रह्मा ही उनके योगबल की परीक्षा लेने के लिए आए थे। श्री नियमानन्द जी ने अतिथि की सेवा के लिए उचित भोजन सामग्री अपने योग बल से प्रस्तुत की परन्तु उस समय यति स्नान के पश्चात नित्य सांध्य क्रिया में व्यस्त थे । श्रीनियमानन्दजी को यह भी ज्ञात हुआ कि ये यतिगण सूर्यास्त के पश्चात भोजन नहीं करते हैं। अतिथि के पूजा-पाठ समाप्त होने तक सूर्यास्त हो जायेगा और वे अतिथि नारायण अभुक्त रह जायेंगे यह विचार कर श्रीनियमानन्द जी ने सुदर्शन चक्र का आह्वान किया और उन्हें आश्रम में स्थित एक नीम के वृक्ष के ऊपर स्थित होने का आदेश दिया। सुदर्शन चक्र की प्रभा को देखकर अतिथि ने, ‘सूर्यास्त नहीं हुआ है’, ऐसा समझ कर परम प्रीतिपूर्वक भोजन सामग्री ग्रहण की। भोजन के उपरान्त श्री नियमानन्द जी ने जब सुदर्शन चक्र को लौट जाने का आदेश दिया तब रात्रि का एक चतुर्थाशं व्यतीत हो चुका था। इस प्रकार उनका असीम योग-बल प्रत्यक्ष कर अतिथि धन्य-धन्य कहने लगे। “क्योंकि इन्होंने नीम के वृक्ष पर सूर्य को स्थापित किया था”, इस कारण से यति ने श्री नियमानन्दजी को निम्बादित्य (निम्ब–नीम, आदित्य–सूर्य) और निम्बार्क (निम्ब–नीम, अर्क–सूर्य) नाम प्रदान किया। उस समय से श्रीनियमानन्दजी श्रीनिम्बार्क भगवान के नाम से विख्यात हुए । श्री भगवान नारायण के वरदान स्वरूप इनके बाद से यह हंस या सन् सम्प्रदाय निम्बार्क सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ जो कि आज तक प्रचलित है।
ब्रजभूमि मे रहते समय निम्बार्क भगवान की तपोज्ज्वल कान्ति, उनका मनोहर मुखश्री, सर्वशास्त्रों में उनका पाण्डित्य, अलौकिक योगबल, आचार्य की लीला और सुयश चारों ओर फैल चुका था। एक समय एक दिग्विजयी पण्डित निम्बार्काचार्य की ख्याति सुनकर उनसे शास्त्रविचार करने के लिए नीमगाँव के आश्रम पहुँचे। उनका नाम था विद्यानिधि। उनके शास्त्रार्थ के प्रस्ताव पर श्रीनिम्बार्क भगवान ने कहा, “तुम पहले मेरे शिष्य औदम्बराचार्य के साथ विचार करो। अगर तुम उसे पारजित कर सके तब मेरे साथ शास्त्रार्थ करना।” औदम्बराचार्य ने अनायास ही विद्यानिधि को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया। आचार्य के शिष्य का शास्त्रज्ञान देखकर विद्यानिधि ने निम्बार्काचार्य की शरण ग्रहण की और उनसे दीक्षा और नैष्ठिक सन्यास ग्रहण किया। उनका नया नाम हुआ – श्री निवासाचार्य।