श्रीश्री नारद भगवान

श्रीश्री नारद भगवान

इस सम्प्रदाय के तृतीय आचार्य हुए श्रीश्री नारद भगवान जो सनकादि ऋषियों की तरह ब्रह्माजी के अन्यतम मानस पुत्र थे । वे ब्रह्माजी के कन्ठ से उत्पन्न हुए थे शास्त्र कहता है –

कण्ठदेशाच्च नारदः। (ब्र.वै.पु.ब्रह्मखण्ड, ८।२६) अर्थात् – और कण्ठ से नारद उत्पन्न हुए।

हमारे सम्प्रदाय के ग्रन्थ मनत्रार्थरहस्यटीका में श्री नारद ऋषि के विषय में लिखा है –

नरस्य सम्बन्धि नारम् अज्ञानं दहतीति नारदः।

अर्थात् – नर के सम्बन्ध में नार को अर्थात् अज्ञान को वे जला देते हैं इसीलिए उन्हें नारद कहा जाता है।

जन्म से ही नारद ऋषि वैराग्य, पराभक्ति, शास्त्रज्ञान और तत्त्वज्ञान से सम्पन्न थे। इसीलिए अपने बड़े भाई सनकादि ऋषि की तरह वे भी सृष्टि का विस्तार करने के इच्छुक नहीं थे और उन्होंने भी पिता ब्रह्मा की आज्ञा पालन करने से इन्कार कर दिया। ब्रह्माजी ने कुपित होकर नारद को अभिशाप देते हुए कहा, “पिता की आज्ञा पालन ना करने के कारण तुम कामी, स्त्रैण, तत्त्वज्ञान-रहित होकर पचास सुन्दर रमणीयों के साथ दिव्य एक लाख युग तक गन्धर्व का जीवन व्यतीत करोगे। तब तुम्हारा नाम उपवर्हन होगा। गन्धर्व की योनी में जीवन समाप्त होने पर तुम मनुष्य योनि में शूद्र होकर दासीपुत्र के रूप में जन्म लोगे।” पिता के अभिशाप से क्रोधित हुए नारद ने भी पिता ब्रह्माजी को अभिशाप देते हुए कहा, “पिता होकर भी अगर तुम पुत्र को अभिशाप दे रहे हो तो मैं भी आपको अभिशाप देता हूँ कि – तीन कल्पकाल तक तुम्हारी पूजा कोई नहीं करेगा।”

अंत में हुआ भी वही, पिता ब्रह्मा के अभिशाप के फल से नारद ने एक गन्धर्व राजा के घर जन्म ग्रहण किया। कुलगुरु वशिष्ठ ने उनका नाम रखा “उपवर्हन”, अर्थात् – पूजनीय पुरुषों में जो सर्वश्रेष्ठ होगा। उचित समय आने पर उपवर्हन ने वशिष्ठ से श्रीहरि का मंत्र ग्रहण किया और गन्डकी नदी के तट पर कठोर तपस्या करने लगे। उस समय उनके रूप और कान्ति को देखकर गन्धर्व कन्याओं ने उनको वर के रूप में पाने की इच्छा की। उन पचास कन्याओं ने तपस्या और योगबल से युक्त होकर अपना शरीर त्याग दिया और गन्धर्वराज चित्ररथ के घर उनकी कन्याओं के रूप में जन्म ग्रहण किया। पिता के आदेश से उन पचास कन्याओं ने नारद को पति के रूप में वरण किया और आनन्द से जीवन व्यतीत करने लगे। इस प्रकार तीन लाख वर्ष बीत गए।

एक बार उपवर्हन अपनी पत्नियों के साथ तीर्थराज पुष्कर पहुँचे। उस समय ब्रह्मा और अन्य देवतागण रम्भा नाम की अप्सरा का नृत्य देख रहे थे। रम्भा को नृत्य करते देख उपवर्हन काम के वश में हो गए और उनका धैर्य छूट गया। ब्रह्माजी ने इसपर क्रोधित होकर उन्हें अभिशाप दिया कि, “अब की बार तुम मनुष्य योनि में पृथ्वी पर जन्म ग्रहण करोगे और शूद्रत्व को प्राप्त करोगे।” इस अपमान और अभिशाप से लज्जित उपवर्हन ने ब्रह्मा की उसी सभा में योगबल से युक्त होकर अपना शरीर का त्याग कर दिया। उस समय उनकी एक लाख वर्ष की आयु अभी बची थी। पति की इस अकाल मृत्यु को देखर उपवर्हन की प्रधान पत्नी, मालावती रोने लगी और उसने क्रोधित होकर कहा, “अगर देवता गण मेरे पति को पुनर्जीवित नहीं करेंगे तो मैं देवताओं को कठोर श्राप दे दूँगी।” ब्रह्मा आदि देवतागण भयभीत होकर भगवान श्रीहरि की शरण में गए। श्रीहरि ने एक ब्राह्मण बालक का वेश धारण किया और मालावती के निकट उपस्थित हुए। मालावती को शान्त करके उसपर प्रसन्न होकर उन्होंने उपवर्हन को फिर से जीवित कर दिया।

उचित समय आने पर उपवर्हन की मृत्यु हुई और इस बार उन्होंने एक ब्राह्मण के औरस से एक शूद्रा स्त्री के गर्भ से मनुष्य योनि में पृथ्वी पर जन्म लिया। नारद का माँ कलावती अपने पति के दोष को कारण सन्तान से वंचित थी। कलावती सन्तान प्राप्त की इच्छा से कश्यप मुनि के पास गयी तो मुनि ने उनके अनुरोध को अस्वीकार करके उनका तिरस्कार कर दिया। उस समय देवलोक की अप्सरा मेनका वहाँ पर आयी तो उसे देखकर कश्यप मुनि का वीर्य स्खलित हो गया। कलावती ने उस वीर्य को धारण किया और घर लौटकर स्वामी को समस्त घटना सुना दी। यह सुनकर कलावती के पति द्रुमिल ने आनन्दित होकर अपना सर्वस्व दान कर दिया और बदरिक आश्रम के लिए प्रस्थान किया जहाँ उन्होंने एक मास कठोर तपस्या करने के बाद योगबल से अपनी देह त्याग दी। पति के देहान्त के बाद कलावती अग्नि में प्रवेश करके प्राणों को त्याग करने गयी तो एक ब्राह्मण ने उनकी रक्षा की और उसे अपने घर ले आए। समय आने पर कलावती को एक पुत्र हुआ जो परम ज्ञानवान और रूपवान था। उसे अपने पूर्व जन्मों की स्मृति भी थी।

गृहस्वामी ब्राह्मण कलावती को अपनी पुत्री की तरह रखते थे। एक बार उन ब्राह्मण के घर पर ब्रह्मतेज से सम्पन्न सनकादि ऋषियों का आगमन हुआ। नारद ने उनकी बहुत सेवा की और उनका जूठन प्रसाद के रूप में ग्रहण करते थे। ऋषि सनत्कुमार ने नारद को कृष्ण मंत्र की दीक्षा दी। ब्राह्मण और कलावती की आज्ञा को पालन करके नारद उन सनकादि ऋषियों के दास हो गए। कुछ दिनों के बाद कलावती लकड़ी संग्रह करने के लिए जँगल में गयी तो वहाँ उसे एक विषधर सर्प ने काट लिया और उसकी मृत्यु हो गयी। शिशु नारद की एकमात्र संसार की आसक्ति भी छूट गयी और वे सनकादि ऋषियों के साथ उस ब्राह्मण के घर को त्याग करके उनके साथ ही चले गए। ऋषियों ने कृपापूर्वक नारद को तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया। नारद इस तत्त्वज्ञान की साक्षात अनुभूति के लिए गंगा के तट पर घोर तपस्या करने लगे और जो मंत्र उन्हें मिला था उसका निरन्तर जाप करने लगे। प्राय एक सहस्र वर्ष अनाहार तपस्या करने के बाद नारद को बालक के रूप में श्रीहरि का दर्शन मिला। परन्तु कुछ समय बाद वह रूप अदृश्य हो गया और उसके वियोग मे नारद अधीर हो गए और रोने लगे। तब आकाशवाणी हुई जिसने नारद से कहा, “नारद, तुम्हें इस जन्म में इस मूर्ति का दर्शन दोबारा नहीं होगा। तुम्हारी यह देह छूट जाने पर तुम्हें दिव्य देह प्राप्त होगी। उस देह में तुम फिर से गोविन्द का दर्शन कर सकोगे।”

आकाशवाणी सुनकर नारद का रोना थम गया और उन्होंने अपना शेष जीवन उस कृष्ण मंत्र का जाप करते हुए व्यतीत कर दिया। मनुष्य देह छूटने के बाद नारद ब्रह्मा के श्राप से मुक्त हो गए और इस बार उन्होंने फिर ब्रह्मा के मानसपुत्र के रूप मे जन्म ग्रहण किया। पिता ब्रह्मा ने नारद को फिर सृष्टि कार्य में योगदान करने को कहा। ब्रह्मा ने नारद से कहा कि मनुवंश में जन्मी राजा सृञ्जय की कन्या ने उसे पति के रूप में पाने के लिए घोर तपस्या की है और उस कन्या की तपस्या विफल नहीं होगी। नारद भी पिता की आज्ञा मानने के लिए सहमत हो गए परन्तु उनकी आज्ञा लेकर वे पहले पहले बदरिक आश्रम पहुँचे जहाँ वे अपने पहले गुरु शिवजी के पास उपस्थित हुए। शिवजी से आदेश प्राप्त होकर वे नर-नारायण ऋषियों के पास गए । नर-नारायण ऋषियों ने नारद को बहुत से ऐसे विषयों के बारे में बताया जिनके विषय में नारद बहुत काल से श्रवण करने की इच्छा रखते थे। उसके बाद पिता की आज्ञा का पालन करते हुए राजा सृञ्जय की कन्या रत्नमाला से विवाह किया। बहुत काल तक संसार धर्म पालन करने के बाद एक दिन ब्रह्मलोक में एक अश्वत्थ के पेड़ के नीचे उनकी भेँट अपने पूर्व जन्म के गुरु श्रीसनत्कुमार से हुई। ऋषि ने नारद को मोह, माया, विषयासक्ति इत्यादि आत्मज्ञान के प्रतिबन्धकों को त्याग करके श्रीकृष्ण का भजन करने का उपदेश दिया और साथ ही सर्वश्रेष्ठ कृष्ण मंत्र भी प्रदान किया। इस उत्तम मंत्र को प्राप्त करके नारद ने गृहस्थाश्रम को त्याग दिया और ऋषि के आदेशानुसार भारतवर्ष में तपस्या करने चले गए। यहीं नारद ने श्रीहरि को स्मरण करते करते अपनी देह त्याग दी और श्री भगवान के श्रीचरणों में विलीन हो गए। ब्रह्माजी के आशीर्वाद से उन्हें दिव्य देह प्राप्त हुई और भगवान ने उन्हें अपने पार्षद का स्थान दिया। उन्हें अबाध गति से लोकों में विचरण करने का वरदान भी मिला। उनकी गति सर्वत्र है और वे प्रत्येक युग में अवतीर्ण होकर असंख्य जीवों का कल्याण करते हैं। श्रीश्री नारद भगवान सत्य, त्रेता और द्वापर युग के अंत तक इस सम्प्रदाय के आचार्य रहे।

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