श्रीचतुरचिन्तामणि देवाचार्य जी महाराज (नागाजी महाराज)

श्रीचतुरचिन्तामणि देवाचार्य जी महाराज (नागाजी महाराज)

श्रीश्री निम्बार्क भगवान के पश्चात उनके उपयुक्त शिष्य श्रीश्री निवासाचार्य जी उनकी गद्दी पर अधिष्ठित हुए। उनके बाद उनके शिष्य श्रीश्री विश्वाचार्यजी से लेकर परम्पराक्रम से श्री श्री देवाचार्यजी तक द्वादश आचार्य हमारे सद्‌गुरु रहे। उनके पश्चात् अष्टादश भट्टाचार्य और दस देवाचार्य हमारे गुरु रहे। उपरोक्त दस देवाचार्यों में एक और ३९वें सद्‌गुरु, श्री चतुरचिन्तामणि देवाचार्यजी, जो नागाजी महाराज के नाम से प्रसिद्ध थे, उनके विषय में कुछ वर्णन किया जा रहा है।

श्री नागाजी महाराज ने साख्य भाव से श्रीभगवान की आराधना की थी। ब्रजभूमि के पायगाम गाँव में इनका जन्म हुआ था। अपने गुरु से सन्यास ग्रहण करके वे बरसाना के निकट कदमखण्डी पर्वत की एक गुफा में बहुत समय तक कठोर तपस्या करते रहे। परन्तु जब इतनी तपस्या के पश्चात भी श्रीश्री ठाकुरजी के दर्शन प्राप्त नहीं हो सका, तब अभिमानयुक्त हृदय से उन्होंने अपने मन ही मन कहा, “ठाकुरजी तुमने इसी बृजभूमि में तपस्या कर सिद्धि प्राप्त की थी, इसीलिए तुम और किसी को भी (मुझे भी), इस बृजभूमि में सिद्ध नहीं दोगे। इसलिए मैं कहीं और जाकर तपस्या करूँगा। मैं भी देखता हूँ तुम मुझे किस प्रकार बाधा देते हो।” इस प्रकार सोचकर उन्होंने अपना चिमटा और कमण्डलु उठाया और कदमखण्डी त्यागकर अन्यत्र जाने लगे। परन्तु वे अधिक दूर नहीं जा सके क्योंकि उनकी लम्बी जटायें चारों ओर फैले हुए जंगल के काँटों से भरे वृक्षों में इस प्रकार उलझ गईं कि वे एक कदम आगे अथवा एक कदम पीछे जाने में भी असमर्थ हो गए। इससे उनका श्रीठाकुरजी के प्रति अभिमान और बड़ गया और उन्होंने सोचा, “य़े ठाकुरजी तो बड़े ही शठ हैं, छल-चातुरी करके मेरी जटाओं को काँटो में फँसा दिया है और मुझो बाधा दे रहे हैं। ठीक है, मैं ऐसे ही खड़ा रहूँगा, देखते हैं वो मेरा क्या कर सकते हैं।” श्रीनागाजी महाराज इसी प्रकार एक स्थान पर तीन दिन और तीन रात तक खड़े रहे। तीन दिन के पश्चात चौथे दिन श्रीकृष्ण भगवान चतुर्भुज मूर्ति धारण करके उनके समक्ष प्रकट हुए और उन्होंने अपने दो करकमलों से श्रीनागाजी महाराज की काँटों में उलझी हुई जटाओं को मुक्त किया और अन्य दो बाहुओं से उनका आलिङ्गन कर उन्हें कहा, “नागाजी, तुम सिद्ध हो गए हो, यहीं रहो और मुझसे कुछ वरदान माँगो।” श्रीनागाजी महाराज ने आनन्दविभोर होकर श्रीठाकुरजी को दण्डवत् प्रणाम करके उनकी अनेक प्रकार से स्तुति की। भगवान से उन्होंने वर माँगते हुए कहा कि, “बृजभूमि का आधा पूत और आधा दूध मुझे दो।” इसका अर्थ यह कि ब्रजभूमि में जितने पुत्र सन्तान होंगे उसमें से आधे गृही रहेंगे और बाकि आधे साधु बनकर नागाजी महाराज के समाज की वृद्धि करेंगे। उसी तरह, ब्रजभूमि में जितना दूध होगा उसमें से आधे दूध पर साधुओं का अधिकार होगा जिससे वे दूध पान करके निश्चिन्त मन से साधना कर सकें। श्रीश्रीठाकुरजी ने ये दो वरदान तो दिए ही, साथ ही उन्होंने नागाजी महाराज के चेले का रूप धारण कर श्रीनागाजी महाराज को अपने दिये हुए वरदानों का प्रचार भी किया। उस समय बृजभूमि के आधे पुत्र एवं आधा दध श्री नागाजी महाराज को समर्पित किया जाता था। पूरे ब्रज मण्डल में यह बात रट गयी कि नानगाजी महाराज को भगवान से ये दो वरदान मिले हैं। आज तक इस वरदान का प्रभाव कहीं-कहीं ब्रज भूमि में देखने को मिलता है। श्री नागाजी महाराज बहुत शक्तिशाली महापुरुष थे। एक किं वदन्ति, जो उनके जीवित काल में भी प्रसिद्ध थी, के अनुसार कहा जाता था कि वे प्रतिदिन ८४ क्रोश की ब्रजपरिक्रमा वायु की गति से कुछ ही समय में पूर्ण किया करते थे। यह बात भरतपुर के राजा के कानों तक पहुँची। उन्होंने नागीजी की परीक्षा लेने के लिए ८४ क्रोश परिक्रमा के हर तीर्थ पर अपने लोग तैनात कर दिये, यह देखने के लिए कि वास्तव में नागाजी महाराज पूरी परिक्रमा लगाते हैं कि नहीं। नागाजी महाराज ने समस्त स्थानों का दर्शन तो किया ही, साथ ही वे प्रत्येक स्थान पर जाकर राजा के अनुचरों से वार्तालाप भी करते थे जिससे राजा के मन में कोई सन्देह न रहे। इस घटना से प्रभावित होकर राजा नागाजी महाराज से बहुत प्रभावित हुए और उनकी शरण ग्रहण करके उनसे दीक्षा भी प्राप्त की।

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