शृङ्गारारति स्तुति

शृङ्गारारति स्तुति

भये प्रगट गोपाला दीनदयाला यशोमति के हितकारी।

हरषित महतारी रूप निहारी मोहन मदन मुरारि ।।

कंसासुर जाना मन अनुमाना पूतना वेग पठायि।

तेहि हरषित धायि मन मुचुकायी गेइ जहाँ यदुरायि।।

तेहि जायि उठायि हृदय लगायि पयोधर मुख में दीन्ह।

तब कृष्ण कन्हाई मन मुचुकायी प्राण ताको हर लीन्ह ।।

जब इन्द्र रिषाये मेघन लाये वश करे ताहे मुरारि।

गौअन हितकारी सुरमनहारी नख पर गिरिवरधारी।।

कंसासुर मारो अति अहंकारो वत्सासुर संहारो।

बकासुर आयो बहुत डरायो ताको बदन बिदारो।।

तेहि अति दीन जानि प्रभु चक्रपाणि ताँहें दीन्ह निजलोका।

ब्रह्मासुर आयो अति सुख पायो मगन भये गये शोका।।

इह छंद अनूपा है रसरूपा जो नर याको गावे।

तेहि सम नेही कोई त्रिभुवन सोहि मनवांछित फल पावे”।। (३बार पाठ्य)

नंद यशोदा तप कियो मोहन से मन लागे ।

देखन चाहत बाल-मुख रहे कछुक दिन जाय।।

जो नक्षत्र मोहन भए सो नक्षत्र पर आय।

चारि बधाई रीत सब करोति यशोदा माई ।।

राधावर कृष्णचन्द्रजी की जय, विनतासुत गरुड़देवजी की जय, पवनसुत हनुमानजी की जय, उमापति महादेवजी की जय, रमापति रामचंद्रजी की जय, वृन्दावन कृष्णचंद्रजी की जय, ब्रजेश्वरी राधारानीजी की जय, बोलो भाई सब संतन् और भक्तन् की जय, अपने अपने गुरुगोविंदजी की जय श्रृङ्गार आरति की जय, जय जय श्री राधेश्याम।

प्रात:कालीन स्तुति के बाद कुछ समय तक, “जय राधेश्याम, राधेश्याम, राधेश्याम जय श्यामाश्याम; जय सीताराम, सीताराम, सीताराम जय सीयावर राम, जय राधेश्याम…..”, यह कीर्तन करना चाहिये, और इसके बाद जयध्वनि देनी चाहिये।

CONTINUE READING
Share this post
Come2theweb