द्वैताद्वैत सिद्धांत

द्वैताद्वैत सिद्धांत

निम्बार्क सम्प्रदाय के सिद्धांत द्वैताद्वैत सिद्धांत है और इसे भेदाभेद सिद्धांत भी कहा जाता है। श्रीश्री निम्बार्क भगवान इस सिद्धांत के प्रवर्तक हैं । इस सिद्धांत में ब्रह्म, जो कि इन्द्रियातीत, अव्यय और सर्वसृष्टि के कारण, पालन एवं लयकर्ता हैं, उन्हें नित्य चतुष्पाद स्वरूपविशिष्ट कहा जाता है। अक्षर स्वरूप, ईश्वर स्वरूप, जीव स्वरूप एवं जगत स्वरूप, इन चार स्वरूपों में ब्रह्म नित्य पूर्ण हैं । अक्षर स्वरूप में ब्रह्म निराकार, निर्गुण व इन्द्रियातीत हैं। ईश्वर स्वरूप में वे अनन्त देह विशिष्ट पुरुष हैं । जीव स्वरूप में ये अनन्त नाम, लिङ्ग व संज्ञा प्राप्त रूपी पुरुष हैं और जगत स्वरूप में ये अनन्त विश्व-ब्रह्माण्ड, त्रिगुणात्मक, अवयव रूपी हैं । अक्षर स्वरूप में ये इन तीनों स्वरूपों के आश्रय होकर भी इनके अतीत और परे विराजते हैं। यह जगत इनके ही उपादान से सृष्ट है अत: यह जगत मिथ्या वा कल्पनामात्र नहीं है अपितु परब्रह्म का नित्य स्वरूप है। इस जगतरूपी अनन्त विश्व ब्रह्माण्ड देह में ईश्वररूपी चेतनामय पुरुष एक अखण्ड रूप में अंतर्निहित हैं और जीव (जीवात्मा) स्वरूप में ब्रह्म, अनन्त पृथक-पृथक अशों में मानो विभक्त होकर, अनन्त पृथक-पृथक नामरूपी जगत में प्रवेश कर नित्य विराजते हैं । अखण्ड ईश्वर रूप और पृथक-पृथक जीवरूप, ये दोनों स्वरूप ब्रह्म में नित्य विराजमान हैं। जीव, ईश्वर का अंश और सर्वरूपेण ईश्वरधीन है, अतः जीव ईश्वर से अभिन्न है और पृथक होने के कारण ईश्वर से भिन्न भी है। ये भेद और अभेद, दोनों भाव सर्वदा ब्रह्म में विराजमान हैं। जैसे स्फुलिङ्ग अग्नि का अंश होता है एवं अग्नि से छोटा होने पर भी अग्नि के प्रायश: सर्वगुणों से संपन्न होता है, उसी तरह ईश्वर का अंश जीव, ईश्वर से छोटा होने पर भी प्रायश: ईश्वर के सर्व गुणों से संपन्न होता है । जिस तरह एक मनुष्य सदैव अपने को एक अखण्ड मानव-स्वरूप में अनुभव करता है और इसके साथ ही साथ वह अपने को भिन्न-भिन्न अङ्गविशिष्ट मनुष्य के रूप में ज्ञात होता है। उसी प्रकार ब्रह्म, ईश्वर स्वरूप में अपने को एक विराट रूप में और इसके साथ ही साथ पृथक-पृथक अङ्गविशिष्ट जीव रूप में नित्य विराजमान हैं, इस प्रकार ज्ञात हैं। ये दोनों स्वरूप नित्य और एक ही साथ विराजमान हैं । जीव रूप में जब यह अपने को सम्पूर्ण रूप से ईश्वराधीन ज्ञात होते हैं तब इन्हें मुक्त जीव कहा जाता है । परन्तु जब यह ज्ञान अविद्या से आवृत्त हो जाता है तब यह जीव अपने को ईश्वर से पृथक और स्वाधीन समझकर स्वयं को स्वतंत्र कर्ता समझने लगता है, तब यह बद्धजीव कहलाता है । जीव की गति बद्धावस्था से मुक्तावस्था की ओर जाती है एवं इसके विपरीत अर्थात मुक्तावस्था से बद्धावस्था की ओर कदापि नहीं जाती। मुक्तावस्था ही जीव का स्वरूप है और बद्ध जीव के द्वारा इस स्वरूप की प्राप्ति ही मोक्ष कहलाती है। मुक्तावस्था में जीव स्वयं को सम्पूर्ण रूप से ईश्वराधीन और ईश्वर को सर्व कर्ता व सर्वाश्रय मानकर ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (यह सब कुछ ब्रह्म है) का ज्ञान प्राप्त होकर अखण्ड, अनन्त आनन्द को प्राप्त होता है।

 

 

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