द्वैताद्वैत सिद्धांत

द्वैताद्वैत सिद्धांत

निम्बार्क सम्प्रदाय भारत के चार प्रमुख वैष्णव सम्प्रदायो में सबसे प्राचीन माना जाता है। इस सम्प्रदाय की उपासना प्रणाली वेदान्त सम्मत और वेदान्त के मूल सिद्धंतों पर आधारित है। वेदान्त के अनुसार मुक्ति वा मोक्ष ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। निम्बार्क सम्प्रदाय का सिद्धांत द्वैताद्वैत सिद्धांत कहलाता है और इसे भेदाभेद सिद्धांत भी कहा जाता है। श्रीश्री निम्बार्क भगवान इस सिद्धांत के प्रवर्तक हैं । भगवान श्रीहरि के आयुध श्रीसुदर्शन चक्र ने ही पृथ्वी पर निम्बार्क भगवान के रूप में जन्म ग्रहण किया था। तैलंग क्षेत्र के वैदुर्यपत्तन गाँव में इनका जन्म हुआ। उनकी माता का नाम था जयन्ती और पिता का नाम था अरुण। इनके बाल्य काल में ही इनके माता पिता इन्हें लेकर ब्रज भूमि में बरसाना के निकट निम्बगाँव में आ गए जहाँ इन्हे नारद भगवान ने दीक्षा प्रदान की। कठोर साधना के बाद सिद्ध मनोरथ होकर वे पूण तत्त्वज्ञानी सिद्ध पुरुष के रूप में प्रसिद्ध हुए। इनकी रचित ग्रन्थावली में वेदान्त दर्शन का भाष्य है जिसना नाम है वेदान्त पारिजात सौरभ। यह एक लघु परंतु अत्यन्त गभीर भाष्य है जिसमें द्वैताद्वैत सिद्धान्त की सूत्रों के माध्यम से व्याख्या की गयी है। उनकी एक अन्य प्रधान रचना का नाम है – वेदान्त कामधेनु, जिसे दशश्लोकी भी कहा जाता है। नाम के अनुसार ही इसमें दश श्लोकों के माध्यम से निम्बार्क सम्प्रदाय के सिद्धान्तों और इसकी साधन प्रणाली की संक्षिप्त व्याख्या है। उपास्य देव वा इष्टदेव के प्रति भक्ति इस सिद्धान्त का एक प्रधान अंग है।

द्वैताद्वैत सिद्धांत ब्रह्म, जीव, ईश्वर और जगत के सम्बन्ध की व्याख्या करता है। वेदान्त दर्शन, जिसे ब्रह्मसूत्र या उत्तर मीमांसा भी कहा जाता है, के अनुसार, परब्रह्म इस अनन्त और असीम ब्रह्माण्ड की सृष्टि के अनादि कारण हैं। यह सृष्टि परब्रह्म से ही उत्पन्न होती है, उनमें ही स्थित रहकर उनकी शक्ति से पालित होती है और अंत में यह उन्हीं में लय हो जाती है। जीवात्मा, जगत और ईश्वर, इन परब्रह्म की शक्तिस्वरूप हैं। ये तीनों उनसे अभिन्न हैं और अपने अक्षर स्वरूप में वे ही इन तीनों के सर्वाश्रय के रूप में, इन तीनों को अतिक्रम करके निराकार, निर्गुण और अव्यय रूप में स्थित हैं। परब्रह्म सगुण भी हैं और निर्गुण भी हैं। वे इस जगत के उपादान कारण हैं और वे ही इसकी सृष्टि के निमित्त कारण भी हैं। वे काल और स्थान की सीमा को अतिक्रम करके भी विराजमान है। एक ओर तो परब्रह्म सर्वव्यापी, अखण्ड, अद्वैत, निर्विकार, कालातीत, निराकार और इन्द्रियातीत हैं; दूसरी ओर सर्वशक्तिमान होने के कारण वे सम्पूर्ण शक्तियों के आधार हैं। शक्ति और गुण शब्दद्वय आध्यात्मिक शास्त्रों में समार्थक हैं इसलिए परब्रह्म सगुण भी हैं। किसी भी कार्य को करने के लिए शक्ति की आवश्यकता पड़ती हैं। जगत की सृष्टि आदि का कारण होने से वे शक्ति अथवा गुण संपन्न हैं यह सहज ही प्रमाण होता है और श्रुतियों में इसके अनेक प्रमाण हैं।

ये परब्रह्म जड़ नहीं हैं; वे चेतन हैं अथवा चित् शक्ति संपन्न हैं। वे अपनी चित् शक्ति के द्वारा अपने ही स्वरूप को नित्य निरंतर अनुभव करते हैं और यह अनुभव आनन्दमय अनुभव है। इसीलिए शास्त्रों में इन्हें सच्चिदानन्द भी कहा गया है; सत्-चित्-आनन्द। सत् का अर्थ है स्थिति अथवा अस्तित्व; वे सर्वदा एकरस, अद्वैत, अखण्ड रूप में स्थित हैं, निर्विकार हैं इसलिए भूत, वर्तमन और भविष्यत्, किसी भी काल में उनके स्वरूप में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता, इसी कारण से वे सत् कहलाते हैं। इस जगत में पर वस्तु परिवर्तनशील है परंतु प्रब्रह्म इनसे विलक्षण सर्वदा अव्ययस्वरूप हैं। गभीर विचार करने पर हम इस निर्णय पर पहुँचेगे कि यदि वे अद्वैत और सर्वव्यापी न हों तो उनका आनन्दमय होना संभव नहीं है। अगर उनके अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का अस्तित्व है तो वे उस वस्तु के द्वारा सीमित हो जाते हैं। जो सीमित है उसमें अभाव होता है और अभाव का बोध होने पर आनन्दमय होना असंभव है। श्रुति कही है – यो वै भूमा तत्सुखं, नाल्पे सुखमस्ति। भूमैव सुखम्, अर्थात् – जो भूमा है (असीम और अनन्त) है, वही सुख है, जो सीमित है उसमें सुख नहीं है, भूमा ही सुख है। श्रुति आगे कहती है – यो वै भूमा तदमृतम्। अथ यदल्पं तन्मर्त्यम्। अर्थात् – जो भूमा है वही अमृत है, जो सीमित है वह मरण धर्मशील है। इसलिए श्रुति जब ब्रह्म को आनन्दस्वरूप कहती है तो इसीसे उनका अद्वैत और अखण्ड होना स्वयंसिद्ध हो जाता है।

अगर हम आनन्द के विषय में चिंतन करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञान के अभाव में आनन्द अस्तित्वहीन है। अगर तुम्हें किसी वस्तु का ज्ञान नहीं है तो वह तुम्हारे लिए अस्तित्वहीन है। चीनी अपना मीठापन स्वयं अनुभव नहीं कर सकती क्योंकि वह जड़ है। मनुष्य चीनी के मीठेपन को अनुभव करता है क्योंकि वह चेतन है। इसलिए मीठेपन का अनुभव ज्ञान का विषय है और ज्ञान पर निर्भर करता है। मीठेपन को अनुभव करने वाला न हो तो उसका होना या न होना समान है। परंतु परब्रह्म अद्वैत हैं और वे आनन्दमय हैं। इसलिए निष्कर्ष यह निकलता हैं कि वे स्वयं ही अपनी आनन्दमयता के अनुभवकर्ता हैं। जिस शक्ति के प्रभाव से वे अपनी आनन्दमय स्वरूप को अनुभव करते हैं उसे चित् शक्ति कहा जाता है। वे हैं इसलिए सत्-स्वरूप हैं; वे जड़ नहीं हैं, चेतन हैं इसलिए वे चित् स्वरूप हैं; अपनी चित् शक्ति के द्वारा वे अपने स्वरूप के ज्ञाता हैं, उसके अनुभवकर्ता हैं और यह अनुभव आनन्दमय है इसलिए वे आनन्दस्वरूप हैं। इसी कारण से परब्रह्म को सच्चिदान्द कहा गया है। परंतु उन्हें सच्चिदानन्द कहने का अर्थ यह नहीं कि उन्हें तीन भागों में विभक्त किया जा सता है। वे परम अद्वैत हैं, निर्विकार और अव्यय हैं, वे स्वयं ही अपने आनन्दस्वरूप के ज्ञाता हैं। ज्ञान और ज्ञाता का विभाग उनमें नहीं किया जा सकता है। कुछ इस तरह विचार करो कि एक शरीर है जो आनन्द से बना है और वह स्वयं जानता है कि “मैं आनन्दमय हूँ।” यहाँ आनन्द स्वरूपगत है, आनन्द के अनुभवकर्ता से अभिन्न है। इसी तरह परब्रह्म अपने स्वरूपगत आनन्द के अनुभवकर्ता हैं, परंतु ऐसा होते हुए भी वे उस आनन्द से अभिन्न हैं।

जिस शक्ति के द्वारा परब्रह्म अपनी आनन्दमयता का अनुभव करते हैं उसे चित् शक्ति कहा जाता है। यह परब्रह्म की स्वरूपगत नित्य शक्ति है। जब यह चित् शक्ति परब्रह्म के स्वरूपगत आनन्द को एक, अखण्ड और निरविच्छिन्न रूप मे अनुभव करती है तब उन्हें ईश्वर कहा जाता है। पंतु जब यह चित् शक्ति उनके स्वरूपगत आनन्द के विशेष-विशेष अंशों को परिच्छिन्न रूप से एक क्रमानुसार अनुभव करती है तब उसे जीव की संज्ञा दी जाती है। अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि परब्रह्म के स्वरूपगत आनन्द में यह शक्ति अथवा योग्यता है कि निर्विकार रहते हुए भी वह अनन्तरूप में प्रकाशित होता है। दूसरी ओर यह भी कहा जा सकता है कि उनकी स्वरूपगत चित् शक्ति परब्रह्म के स्वरूपगत आनन्द को असंख्य रूपों में अनुभव कर सकती है। ये जो अनन्त रूप प्रकाशित होते हैं उसी का नाम है – जगत। परब्रह्म जिस चित् शक्ति के द्वारा इस प्रकाशित जगत को सम्यक् रूप में, स्वयं से अभिन्न आत्मस्वरूप में अनुभव करते हैं वही ईश्वर हैं। और जिस शक्ति के प्रभाव से वे अपने स्वरूपगत आनन्द के विशेष-विशेष अंशो को दर्शन करते हैं, वही जगत है।

जिस शक्ति के प्रभाव से परब्रह्म का स्वरूपगत आनन्द जीवरूपी चित् शक्ति के निकट परिच्छिन्न और खण्डित रूप में प्रतिभात होता है उस शक्ति का नाम है – माया। इसे प्रकृति भी कहते हैं। मीयते अनया इति माया – इस परिभाषा का अर्थ है – जिस शक्ति के प्रभाव से परब्रह्म, एकरस, अद्वैत और निर्विकार होने पर भी, खण्डित, बहुरूपी और सीमित प्रतिभात होते हैं, उसी का नाम है – माया। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश एकरंग होने पर भी प्रिज्म के प्रभाव से सात रंगो वाला प्रतिभात होता है, ठीक उसकी प्रकार माया के प्रभाव से परब्रह्म अद्वैत और अखण्ड होने पर भी बहुरूपी और खण्डित प्रतिभात होते हैं। परंतु माया का प्रभाव केवल जीवरूपी चित् शक्ति पर ही पड़ता है। ईश्वर पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। माया नाम का प्रिज्म जब जीव और परब्रह्म के स्वरूपगत आनन्द के बीच आ जाता है तब जीव के निकट परब्रह्म जगत के रूप में प्रतिभात होते हैं। जब सद्-गुरु की कृपा से जीव उचित साधना करता है तब इस माया रूपी प्रिज्म का प्रभाव रोध हो जाता है और जीव स्वयं को भी परब्रह्म के समान आनन्दमय अनुभव करने लगता है और उसी आनन्द में स्थित हो जाता है।

ईश्वर और जीव दोनों ही परब्रह्म की चित्-शक्ति के प्रकार भेद हैं। दोनों ही सच्चिदानन्द स्वरूप हैं। पर ऐसा होने पर भी दोनों में कुछ महत्वपूर्ण अंतर हैं। ईश्वर नित्य सर्वज्ञ हैं, उन्हें भूत, वर्तमान और भविष्य का सम्पूर्ण ज्ञान सर्वदा रहता है और इसी कारण से वे कालातीत हैं। दूसरी और जीव का ज्ञान काल द्वारा नियमित होता है, एक पूर्व निर्दिष्ट क्रमानुसार यह जगत उसके ज्ञान का विषय बनता है। एक कारण-कार्य प्रणाली के द्वारा यह जगत और इसमें सब कुछ सृष्टि-स्थिति-लय का नियमानुसार जीव के ज्ञान में प्रकाशित होता है। इसलिए जीव कालाधीन है। त्रिकाल का ज्ञान जीव को एक ही समय में कभी नहीं होता। इसी कारण से जीव का ज्ञान कभी भी ईश्वर के ज्ञान को अतिक्रम नहीं करता। जो ईश्वर के ज्ञान में नित्य प्रकाशित है वही भूत, वर्तमान, और भविष्य के क्रमानुसार, एक कारण-कार्य प्रणाली के द्वारा जीव के ज्ञान में प्रकाशित होता है।

ईश्वर और जीव में दूसरा महत्वपूर्ण भेद यह है कि जीव सच्चिदानन्द स्वरूप होने पर भी माया द्वारा प्रभावित होता है और उसकी बद्धावस्था और मुक्तावस्था दोनों ही होती हैं। बद्ध जीव साधना के द्वारा मुक्ति प्राप्त कर मुक्त जीव हो सकता है। परंतु दूसरी ओर ईश्वर नित्यमुक्त हैं, वह माया के प्रभाव से मुक्त हैं और सर्वदा अपने सच्चिदानन्द स्वरूप में स्थित रहते हैं।

जैसा पहले कहा गया है, जीव का ज्ञान काल द्वारा नियंत्रित होता है और यही जगत की सृष्टि-स्थिति-लय प्रक्रिया का सार है। परब्रह्म के स्वरूपगत आनन्द के विशेष-विशेष अंश ही माया के प्रभाव से जीव के निकट एक क्रमानुसार प्रकाशित होते हैं और जीव हर वस्तु का उत्पन्न होना-स्थित रहना-लय होना अनुभव करता है। हर क्षण परिवर्तित होता है और गतिशील है इसलिए इस सृष्टि को जगत कहा जाता है। परंतु यह परिवर्तन जीव के सच्चिदानन्द स्वरूप में नहीं होता। चित्-रूप में जीव ईश्वर की तरह ही अजन्मा, नित्य और निर्विकार है; परंतु माया के प्रभाव से वह अपनी देह में आत्मबुद्धि संपन्न होकर समझने लगता है कि यह देह ही “मैं हूँ।” यही जीव की बद्धावस्था है।

जीव रूपी चित् शक्ति के द्वारा परब्रह्म अपने स्वरूपगत आनन्द को अनन्तरूप में अनुभव करते हैं इसलिए जीव असंख्य हैं। जीव और ईश्वर दोनों ही चित् शक्ति के प्रकार भेद हैं। जीव अणु है तो ईश्वर विभु हैं। ईश्वर एक अखण्ड और एकरस भाव में सर्वदा विद्यमान हैं परंतु प्रत्येक देह में जीव, ईश्वर का अंश होने पर भी, भिन्न भिन्न रूप में स्थित है। ईश्वर और जीव का संबन्ध मानो सूर्य और उसकी किरणों के समान है। सूर्य की किरणों में सूर्य के समान ताप और प्रकाश के गुण रहते हैं परंतु वे सूर्य के परिमाण में बहुत कम होते हैं। सूर्य सम्पूर्ण सौर मण्डल को आलोकित करता है और उसकी किरण केवल इसके एक विशेष अंश को प्रकाश देती है। सूर्य की किरण मूल रूप में सूर्य का अंश ही है, सूर्य से अभिन्न है परंतु जब वह सूर्य से निर्गत होती है तब उसका मानो एक पृथक अस्तित्व होता है। इसी तरह जीव और ईश्वर में एक भेदाभेद संबन्ध है। जीव ईश्वर से अभिन्न है, उनके समान ही चैतन्यमय है, उनका ही अंश है, परंतु वह ईश्वर से अभिन्न होने पर भी वह ईश्वर के समान नहीं है इसलिए अंश होने पर भी वह ईश्वर से पृथक है। इस तरह से जीव और ईश्वर में एक द्वैत-अद्वैत संबन्ध का होना प्रमाणित होता है और यही इस सिद्धान्त का सार है।

ईश्वर, जीव और जगत, जिन निर्गुण, निराकार, अव्यय परब्रह्म की नित्य शक्ति के रूप में स्थित रहते हैं उन्हें अक्षर ब्रह्म कहा जाता है। शक्ति और शक्तिमान कभी पृथक नहीं रह सकते। शक्तिमान का रूप में वे ईश्वर, जीव और जगत के परम आश्रय के रूप में सर्वदा स्थित हैं। इस सर्वाश्रय भाव को ही लक्ष्य करके श्रुति ने परब्रह्म को निर्गुण, निराकार, इत्यादि कहा है। परंतु वे सर्वशक्तिमान होने के कारण गुण संपन्न भी हैं इसलिए वे सगुण या सशक्तिक भी हैं। जगत उनकी शक्ति का प्रकाश होने के कारण उनसे अभिन्न है और उनका ही अंश है। यह भ्रम अथवा मिथ्या नहीं है। यह उनसे पृथक रूप में अस्तित्वशील है, यही अज्ञान अथवा भ्रम है। ईश्वर, जीव और जगत इन निराकार निर्गुण परब्रह्म में सर्वदा स्थित हैं परंतु जीव, माया के प्रभाव से, जगत को उत्पत्ति-स्थिति-विनाशशील अनुभव करता है। परंतु ईश्वर इसे सर्वदा अखण्ड, एकरस भाव में, निर्विकार आनन्दमय रूप में अनुभव करते हैं। यह जगत उनमें से प्रकाशित होकर, अनन्त नाम-रूप संपन्न जगत के रूप में, जीव के दृष्टिगोचर होता है और प्रलय काल आने पर जगत अपने नाम-रूप आदि भेदभाव रहित होकर उनमें लीन होकर एकरस और अप्रकाशित भाव में स्थित हो जाता है।

इन समस्त युक्तियों को सम्मिलित रूप से विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि परब्रह्म का स्वरूप वर्णना करने पर हम इन्हें चतुष्पाद विशिष्ट कह सकते हैं।

१) जगत – दृश्य स्थानीय प्रथम पाद। यह अनन्त नामरूप विशिष्ट प्रकाशित जगत जो सृष्टि-स्थिति-लय के क्रमानुसार जीव के ज्ञान में प्रकाशित होता है और इसलिए इसे सर्वदा गतिशील अथवा विनाशशील कहा जाता है – यह परब्रह्म का प्रथम पाद है।

२) जीव – इस जगत के समस्त नामरूप विशिष्ट देहपिण्डों में जो चित् शक्ति द्रष्टा के रूप में स्थित है और जिसके कारण देहधारी जीव स्वयं को चेतन स्वरूप मानता है, वह जीव नाम की चित् शक्ति परब्रह्म का दूसरा पाद है।

३) ईश्वर – अनन्त और असीम जगत के प्रत्येक अंश में स्थित होकर जो चित् शक्ति इसे स्वयं से अभिन्न आत्मस्वरूप में अनुभव करती है और जो जीव और जगत को नियंत्रित करती है, वह ईश्वर नाम की चित् शक्ति इस परब्रह्म का तीसरा पाद है। ये कालातीत हैं; जीव और जगत को ईश्वर स्वयं से अभिन्न आनन्दस्वरूप में अनुभव करते हैं। वे सर्वज्ञ, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान हैं। उनका स्वरूपगत आनन्द ही जगत के उपादान कारण है और उनकी चित् शक्ति इसका निमित्त कारण है।  जिस प्रकार मकड़ी अपने ही शरीर के उपादान से जाल बुनती है और अंत मे वह जाल को अपने में समेट लेती है; ठीक उसी प्रकार जीव और जगत उन्हीं से उत्पन्न होते हैं, उन्हीं में स्थित हैं और उन्हीं में लय हो जाते हैं।

४) अक्षर ब्रह्म – जो निर्गुण, निराकार, सर्वप्रकार नामरूप वर्जित, नित्य और अद्वैत हैं, जो जगत, जीव और ईश्वर, ये तीनों शक्तियों के आश्रय के रूप में स्थित हैं, जो इन्द्रियातीत, कल्पनातीत और ध्यानातीत हैं, जिनके बारे में केवल इतना ही कहा जाता है कि “वे हैं”, वे ही परब्रह्म के चतुर्थ पाद – अक्षर ब्रह्म कहलाते हैं।              निम्बार्क भगवान द्वारा प्रवर्तित द्वैताद्वैत सिद्धांत में परब्रह्म, जो कि इन्द्रियातीत, अव्यय, निर्विकार, सर्वाश्रय और सर्वसृष्टि के कारण, पालन एवं लयकर्ता हैं, उन्हें नित्य चतुष्पाद स्वरूपविशिष्ट कहा गया है। अक्षर स्वरूप, ईश्वर स्वरूप, जीव स्वरूप एवं जगत स्वरूप, इन चार स्वरूपों में ब्रह्म नित्य पूर्ण हैं । अक्षर स्वरूप में ब्रह्म निराकार, निर्गुण व इन्द्रियातीत हैं। ईश्वर स्वरूप में वे अनन्त देह विशिष्ट पुरुष हैं । जीव स्वरूप में ये अनन्त नाम, लिङ्ग व संज्ञा प्राप्त रूपी पुरुष हैं और जगत स्वरूप में ये अनन्त विश्व-ब्रह्माण्ड, त्रिगुणात्मक, अवयव रूपी हैं। अक्षर स्वरूप में ये इन तीनों स्वरूपों के आश्रय होकर भी इनके अतीत और परे विराजते हैं। यह जगत इनके ही उपादान से सृष्ट है अत: यह जगत मिथ्या वा कल्पनामात्र नहीं है अपितु परब्रह्म की नित्य शक्ति के रूप में स्थित है। इस अनन्त विश्व ब्रह्माण्डरूपी देह में ईश्वररूपी चेतनामय पुरुष एक अखण्ड रूप में अंतर्निहित हैं और जीव (जीवात्मा) स्वरूप में ब्रह्म, अनन्त पृथक-पृथक अशों में मानो विभक्त होकर, अनन्त पृथक-पृथक नामरूपी जगत में प्रवेश कर नित्य विराजते हैं । अखण्ड ईश्वर रूप और पृथक-पृथक जीवरूप, ये दोनों स्वरूप ब्रह्म में नित्य विराजमान हैं। जीव, ईश्वर का अंश और सर्वरूपेण ईश्वरधीन है, अतः जीव ईश्वर से अभिन्न है और पृथक होने के कारण ईश्वर से भिन्न भी है। ये भेद और अभेद, दोनों भाव सर्वदा ब्रह्म में विराजमान हैं। जैसे स्फुलिङ्ग अग्नि का अंश होता है एवं अग्नि से छोटा होने पर भी अग्नि के प्रायश: सर्वगुणों से संपन्न होता है, उसी तरह ईश्वर का अंश जीव, ईश्वर से छोटा होने पर भी प्रायश: ईश्वर के सर्व गुणों से संपन्न होता है । जिस तरह एक मनुष्य सदैव स्वयं को एक अखण्ड मानव-स्वरूप में अनुभव करता है और इसके साथ ही साथ वह स्वयं को भिन्न-भिन्न अङ्गविशिष्ट मनुष्य के रूप में ज्ञात होता है। उसी प्रकार ब्रह्म, ईश्वर स्वरूप में स्वयं को एक विराट रूप में और इसके साथ ही साथ पृथक-पृथक अङ्गविशिष्ट जीव रूप में नित्य विराजमान हैं, इस प्रकार ज्ञात हैं। ये दोनों स्वरूप नित्य और एक ही साथ विराजमान हैं । जीव रूप में जब वे स्वयं को सम्पूर्ण रूप से ईश्वराधीन ज्ञात होते हैं तब इन्हें मुक्त जीव कहा जाता है । परन्तु जब यह ज्ञान अविद्या से आवृत्त हो जाता है तब वह जीव स्वयं को ईश्वर से पृथक और स्वाधीन समझकर स्वयं को स्वतंत्र कर्ता समझने लगता है, तब यह बद्धजीव कहलाता है । जीव की गति बद्धावस्था से मुक्तावस्था की ओर जाती है एवं इसके विपरीत अर्थात मुक्तावस्था से बद्धावस्था की ओर कदापि नहीं जाती। मुक्तावस्था ही जीव का स्वरूप है और बद्ध जीव के द्वारा इस स्वरूप की प्राप्ति ही मोक्ष कहलाती है। मुक्तावस्था में जीव स्वयं को सम्पूर्ण रूप से ईश्वराधीन और ईश्वर को सर्व कर्ता व सर्वाश्रय मानकर ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (यह सब कुछ ब्रह्म है) का ज्ञान प्राप्त होकर अखण्ड, अनन्त आनन्द को प्राप्त होता है।

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